जाड़े की उस रात
जब एक रास्ते से जो गुज़रा मैं
देखा...पकती आग मे एक साया
सर्द मौसम से लड़ाई कर रहा था
उम्र की दराज़ पर खड़ा वो बाबा
बुझती आग को जिंदा रखने की कोशिश कर रहा था
मानो उससे कह रहा हो ...
तू तो इन्सां नही
फ़िर बीच राह मे छोडके जाने की फितरत
तुझमे कहाँ से आ गई
फ़िर कुछ देर बाद हार के
बरसों पुराना ... सैकडो पैबंद किया
एक पुराना से कम्बल निकाला उसने
ओढ़कर चाँद की ओर देखा
मानो उससे के रहा हो
कुछ ओढ़ ले ऐ नादाँ ... सर्दी बहुत है
कुछ रोज़ बाद ... वैसे ही जाड़े की एक और रात
जब मैं फ़िर उस रास्ते से रूबरू हुआ ... देखा
इस बार आग अपने शबाब पे थी
मन ही मन मैं खुश हुआ और सोचा
चलो आज तो बाबा चैन की नींद सोएगा
कुछ पास गया ... देखा
उस आग के बिस्तर पर
सच मे वो बाबा चैन की नींद सो रहा था
और पास ही पड़ा उसका वो बरसों पुराना दोस्त
वो कम्बल ... मानो रोके दुहाई दे रहा था
इस बार माफ़ करना ऐ दोस्त
इस बार शायद ... सर्दी बहुत है
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